छोड़ी हुई औरत By - अंकिता जैन - Er. Nitin - Just Enjoy Life Forgetting World.

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शुक्रवार

छोड़ी हुई औरत By - अंकिता जैन


छोड़ी हुई औरत 


साढ़े चार घंटे नैरो गेज की ट्रेन में एक ही पोजीशन लिए अकड़े रहने के बाद, पैरों पर सीधे खड़े होने में कुछ वक़्त लगा। ट्रेन से बाहर आ गई हूँ, इसका एहसास तब हुआ जब घंटों तरह-तरह के पसीने की बदबू के बाद नथुनों से कुछ साफ़ हवा पार हुई। स्टेशन के बाहर का नज़ारा ज़्यादा नहीं बदला है। आख़िरी बार जब सात साल पहले यहाँ आई थी, तब बस वो सामने वाली चौकी नहीं थी। पहले वहाँ एक टूटी पुरानी झोपड़ी हुआ करती थी, जिसमें गोली-बिस्कुट, चाय-समोसे और भजिए बेचने वाला एक बूढ़ा रहता था। अब पीले रंग की इस चौकी में ख़ाकी वर्दी वाले बनियान में बैठे हैं। वैसे भी चम्बल के इस इलाक़े में मुझे पुलिस स्टेशन के होने का कोई मतलब कभी समझ नहीं आया, यहाँ का हर आदमी ख़ुद को थानेदार समझता है। स्टेशन के बाहर पुरानी यादें कुरेदते हुए दो क़दम आगे चली ही थी कि रिक्शेवालों ने घेर लिया। “कितें जाओगी मेडम जी?” एक ने आगे बढ़कर पूछा, तो चेहरे पर यकायक मुस्कराहट आ गई। बहुत दिनों बाद ये टोन सुनने मिली थी। कितना ही दूर रह लो, लेकिन अपने गाँव की भाषा चुटकियों में आपको गाँव से जोड़ देती है। “डाकखाना रोड, मित्तल जी के यहाँ,” मैंने कहा और रिक्शे में बैठ गई। बाबा अब नहीं हैं, लेकिन उनके नाम को अब भी लोग जानते हैं। लंबी-चौड़ी क़द-काठी वाले हमारे दादाजी को लोग दूर से पहचान लेते थे। उनकी बुलंद आवाज़ पूरे बगिया में गूँजती थी। गाँव के पुराने लोग कहते हैं कि बाबा ने बचपन में आज़ादी की लड़ाई के दौरान अँग्रेज़ों के डंडे भी खाए थे। बाबा की वजह से हम बच्चों की भी बहुत धाक थी। मुझे तो लगा था कोई रिक्शेवाला मुझे भी पहचान लेगा, लेकिन इतने सालों बाद आई हूँ तो शायद कोई न भी पहचान पाए। बीस साल पहले हुई शादी के बाद मेरा यहाँ आना लगभग छूट गया है। मेरी शादी के बाद माँ-पापा भैया के पास दिल्ली चले गए, इसलिए जब भी मायके आई उन्हीं के पास आई। हाँ, लेकिन पैदा होने से शादी तक के इक्कीस साल जो यहाँ गुज़ारे उनकी कई सारी यादें हैं। एक पूरी ज़िंदगी जी है मैंने यहाँ। कई लोग हैं यहाँ के जिनसे आज भी उतनी ही जुड़ी हूँ जितनी बीस साल पहले थी। रज्जो का नाम भी उन्हीं में से एक है, जिसकी यादों की जड़ें मेरे दिल में सबसे ज़्यादा गहरी हैं। अपनी शादी के बाद मैं दो ही बार यहाँ आई हूँ, एक बार अम्मा की ग़मी पर और दूसरी बार बाबा की ग़मी पर। इसके अलावा कभी कोई और कारण बन ही नहीं पाया यहाँ आने का। अब भी शायद नहीं आती अगर चचेरे भाई ने अपने बेटे की शादी में इतना ज़िद करके बुलाया न होता। वैसे सच कहूँ तो सालों बाद एक बार रज्जो से मिलने की इच्छा भी मन में थी, इसलिए बहाना पाकर खिंची चली आई। रज्जो की याद आते ही उसकी अलग-अलग छवि आँखों में बनती है। कभी बेज़ार-से पुराने फ़र्नीचर की किसी कुर्सी की तरह अपने पैरों पर घिसटती दिखती है, तो कभी जवानी के दिनों की उसकी मंत्रमुग्ध कर देने वाली कत्थई आँखें पल भर में मुझे भूसे-सी पीली और फुसफुसी दिखने लगती हैं। कभी उसके हर अंग में नाप-तौल कर सेट किया हुआ माँसल शरीर दिखता है जो किसी ज़माने में मोहल्ले की लड़कियों के लिए जलन का कारण होता था, तो कभी उसके बदन पर हड्डी और चमड़ी के बीच मुझे कुछ नहीं दिखता। सोचती हूँ, ये सब मेरी कल्पनाओं में है या वाक़ई उसके साथ ऐसा हुआ होगा। आज भी अपने घर की छत से उसके घर के बरामदे में झाँकने की कोशिश कर रही हूँ कि शायद वो कहीं दिख जाए जो सालों पहले मेरी और इस नापाक दुनिया की आँखों से ओझल हो गई थी। रज्जो से मेरा रिश्ता यूँ तो सालों तक पड़ोसी का रहा, उम्र में वो मुझसे छह साल बड़ी भी थी, लेकिन फिर भी हम हमेशा सहेलियों-सी रहे। वो तो कहती थी कि उसने मुझे गोद में भी खिलाया है और मैंने कई बार उसकी गोद गंदी भी की, लेकिन मुझे रज्जो से जुड़ी कई यादों में से जो सबसे पहली याद है वो है, उसका खरबूजे के बीजों को घर के बाहर चबूतरे पर छीलते रहना और मुझसे उन्हें पिस्ता पंसारी की दुकान पर बेचने के लिए भिजवाना। इसके बदले में वो मुझे दो रुपए भी देती थी और थोड़े-से खरबूजे के छिले बीजे भी। रज्जो के हक़ में मेरे पास बस वही एक मीठी याद है, क्योंकि मैं जब दस साल की थी तब रज्जो की शादी हो गई थी, उसके बाद कुछ मीठा रहा नहीं। रज्जो हमारे पड़ोसी बुंदेला साब की लड़की थी। चार भाइयों की इकलौती बहन। दुधमुँही थी जब माँ चल बसी, तो भाइयों का भरपूर प्यार मिला। ख़ासकर बड़े भैया का। “रज्जो, ये ले, तेरे जन्मदिन पर चार जोड़ी कपड़े तेरे लिए।” उसके हर जन्मदिन और रक्षाबंधन पर बड़े भैया हमारे घर से ही आवाज़ लगाते जाते थे, और हमें पता चल जाता था कि रज्जो के लिए नए कपड़े आ गए हैं। लेकिन रज्जो को मैंने उन नए कपड़ों के लिए कभी वैसे चहकते नहीं देखा था, जैसे हम लोग अपने कपड़ों के लिए चहका करते थे। वो हमेशा यही कहती, “ये क्या भैया, इस बार फिर एक ही कपड़े के चार सूट!” जब तक रज्जो अख़बार में लिपटे कपड़े देखकर शिक़ायत करती तब तक बड़े भैया जा चुके होते। अपनी उम्र और ऊँचाई में भी बहुत बड़े, बड़ी-बड़ी मूँछों वाले, आँखों में हमेशा रौब और माथे पर हमेशा शिकन रखे अपने बड़े भैया से कोई चीज़ ज़िद करके या चाहकर माँग पाने की हिम्मत रज्जो में कभी नहीं हुई। उसकी माँ होतीं तो शायद उनसे मनमर्ज़ी के कपड़े सिलवाती। बड़े भैया जितना लाड़ उस पर दिखाते थे, उतना ही उनके ग़ुस्से से वह थर-थर काँपती थी। रज्जो और उनके बीच मतभेद के कारण तो बहुत थे, वे मोहल्ले के बच्चों के साथ कभी सड़क पर या बगिया में रज्जो को खेलने नहीं जाने देते, न छोटे भाइयों के दोस्तों के सामने उसे आने देते। और घर से बाहर कभी अकेले कहीं चली जाए, तो उनका बुलंद आवाज़ में दहाड़ना और आँखें लाल कर लेना ही रज्जो को कँपा देने के लिए काफ़ी होता था। रज्जो उनके सामने कभी कुछ बोल न पाती, बस चार शब्द, “अगर अम्मा होतीं तो…” “अम्मा होतीं तो का… ज़बान मत चला… मोड़ियों के-से ढंग सीख, कल को शादी होगी तो लोग यही कहेंगे कि बिन माँ की लड़की को तनक भी लच्छन नहीं सिखाए।” यही तकियाकलाम था बड़े भैया का। इसके आगे न वो कुछ कहते, न रज्जो को कुछ कहने देते। उन दोनों के बीच की अनबन यूँ तो चलती ही रहती, लेकिन उस दिन तो सबकुछ बदल-सा गया था, जब मेरे और मोहल्ले की दूसरी लड़कियों के साथ रज्जो भी सड़क पर ‘लंगड़ी’ खेल रही थी। गाँव से बाहर गए बड़े भैया बताकर गए समय से पहले आ गए, “यहाँ क्या उछल-कूद कर रही है, चल घर, आज से शाम की भैंस तू ही दुहेगी।” “मगर भैंसें तो हरिया दुहता है न…” रज्जो ने तबेले में बँधी भैसों की तरफ़ देखते हुए कहा तो बड़े भैया की जगह भाभी बोल पड़ीं, “अब मैं आ गई हूँ, और फिर तू भी तो है, हम दोनों औरतें मिलकर घर का काम संभाल लेंगे, नौकरों पर फ़िज़ूल ख़र्चा करने की का ज़रूरत।” उस दिन चौदह साल की, दो चोटी बनाए, साढ़े चार फ़ीट की रज्जो ने अपने माथे पर बड़ी लाल बिंदी लगाते हुए ख़ुद को पहली बार आईने में एक औरत के रूप में देखा था। शायद गाँव में यही उम्र होती है औरत बनने की, बड़ी भाभी भी तो 14 की ही थीं जब आईं थी। थोड़े दिनों में भाभी ने रज्जो के साथ पूरे घर के काम का बँटवारा कर लिया। भैंस भाभी दुहती तो गोबर रज्जो समेटती, कुएँ से पानी भाभी खींचती तो घर तक रज्जो लाती, आटा भाभी गूँधती तो रोटी रज्जो सेकती। सोलह साल की उम्र तक रज्जो 4 भाइयों, 2 भाभियों, 2 भतीजों वाले बुंदेला जी के घर को बख़ूबी संभालने लगी थी। शायद दो-चार साल और संभालती रहती, लेकिन जो अपने भाग्य में ही दुर्भाग्य लिखवाकर आया हो उसे कैसे रोका जा सकता है। उस दिन रज्जो हाँफती हुई मेरे पास आई और बोली, “जा पिस्ता पंसारी की दुकान पर ये चिट्ठी दे आ।” मैं हैरान थी और कुछ समझ नहीं पाई थी, लेकिन रज्जो ने कहा था तो देने जाना था, सो चली गई। उस रात उसके घर से मेरे आँगन तक आने वाली उसकी चीखों और रोने की आवाज़ों पर जब मैंने घबराते हुए माँ से पूछा था, तो उन्होंने कहा था, “पिस्ता पंसारी के बेटे से चक्कर चल रहा है इसका, चार साल से चिट्ठियाँ बदली जा रही थीं, घरवालों को पता लग गया है सो सुताई लगा रहे हैं।” उसके बड़े भैया का राक्षसी रूप ज़ेहन में आते ही रज्जो की चीखों से मैं सिहर उठी थी कि अगर सबको पता चल गया कि अनजाने में ही सही, खरबूजे के बीजों की वो थैली मैं ही पिस्ता पंसारी के बेटे तक पहुँचाती थी तो मेरी भी ख़ैर नहीं। उस दिन मैं ग्लानि से भर गई थी। लग रहा था कि रज्जो को पड़ने वाली मार की कहीं-न-कहीं मैं भी हक़दार हूँ। रज्जो की मोहब्बत का राज़ खुलने के बाद मोहल्ले के लोगों ने अपनी बेटियों को उससे दूर कर दिया और घरवालों ने उसे कमरे में बंद कर दिया। पिस्ता पंसारी के बेटे से ही शादी करना रज्जो की ज़िद थी, जिसे उतारने के लिए रोज़ रात को जब बड़े भैया घर आते तो रज्जो की चीखें और डंडे की मार हमारे आँगन तक सुनाई देती, “बहुत गर्मी चढ़ी है तुझे… बहुत इश्क़ लड़ाना है… ऐसी गर्मी उतारूँगा कि सब भूल जाएगी।” रज्जो के बड़े भैया की यह एक लाइन आज भी जब मेरे कानों में गूँजती है, तो मन काँप जाता है। कई दिनों तक बंद कमरे में ही थाली सरकाकर खाना देने और लात-घूँसों के बाद भी जब रज्जो की मोहब्बत कम न हुई तो बड़े भैया ने आख़िरी हथकंडा अपनाया, उसकी शादी का। माँ थी नहीं, पिता भी गुज़र चुके थे, अपनी नाक बचाने के लिए आनन-फानन में भाइयों ने पड़ोस के गाँव से एक अच्छी ज़मीन-जायदाद वाले घर का लड़का ढूँढ़ निकाला और चौमासा लगने से पहले ही शादी भी कर दी। उसके चले जाने पर सबसे ज़्यादा दुःख उस वक़्त मुझे हुआ था, इसलिए नहीं कि उसकी मोहब्बत उसे नहीं मिल पाई, बल्कि इसलिए कि अब मुझे खरबूजे के छिले बीज और उनकी दलाली से मिलने वाले रुपए नहीं मिलेंगे, और इस बात का भी कि अब हमारे घर-घर खेलने वाले ग्रुप में लड़के की माँ का रोल कौन निभाएगा। शादी के बाद भी रज्जो के मन में पिस्ता पंसारी के बेटे की मोहब्बत ज़िंदा थी या नहीं, उस वक़्त तो उसने नहीं बताया, लेकिन जब वो पहली बार मायके आई तो बहुत बुझी और मरी-मरी-सी दिखी। सबकी नज़रों से बचकर जब कुछ देर के लिए मैं उससे मिली थी, तो उसने बस इतना कहा था, “अम्मा होतीं तो ऐसा न हुआ होता न सिम्मी…” तब मुझे उसकी बातें समझ नहीं आई थीं। मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी जब शादी के सालभर बाद ही मायके आई रज्जो से मैंने पूछा था कि इस बार कितने दिनों के लिए आई है और उसने कहा था, “हमेशा के लिए।” रज्जो शादी के एक साल में कभी अपने भाइयों को यह बता ही नहीं पाई कि ससुराल में ज़मीन-जायदाद भले अच्छी हो, लेकिन उसके पति की जुए की लत से उसे घर से फूटी कौड़ी नहीं मिलती और आए दिन रज्जो से पैसे तो कभी गहने छीनता उसका पति अपनी नई ब्याहता पर बिलकुल भी तरस नहीं खाता था। सबके सामने बात तब आई, जब एक रात उसका पति सारे गहने और रुपए लेकर भाग गया। कहाँ, किसके साथ, आज तक कोई नहीं जानता। रज्जो के भाइयों ने पुलिस-कोर्ट-कचहरी के सारे हथकंडे अपनाए, लेकिन उसके पति का कहीं कुछ पता न चला। किसी ने कहा, कोई दूसरी औरत रख ली, किसी ने कहा, वह मर गया। ससुराल वालों ने भी कुछ ही दिनों में रज्जो का बोझ अपने माथे से उतार कर पल्ला झाड़ लिया। पल्ला तो भाभियाँ भी झाड़ना चाहती थीं, “यहाँ वापस लाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है क्या, फिर से उस पिस्ता पंसारी के लड़के के साथ रंगरलियाँ मनवानी हैं तो लाकर बैठा लो अपनी छाती पे।” भैया भी क़तई नहीं चाहते थे कि रज्जो वापस आए, लेकिन जब ससुराल वालों ने उसका बोरिया-बिस्तर बाँधकर वापस भिजवा दिया तो मजबूरन बड़े भैया को अपना फ़ैसला सुनाना पड़ा, “आग लगन दो इसकी ससुराल को, चार-चार भाई मिलके एक लड़की कौ पेट भी नहीं पाल पाएँगे क्या!” उस दिन के बाद से रज्जो ख़ुद के लिए गले में मंगलसूत्र, माँग में सिंदूर, माथे पे बड़ी लाल बिंदी, लाल चूड़ियों और बिना पति वाली सुहागिन बन गई और दूसरों के लिए ‘पति की छोड़ी हुई औरत’। बस इसी पहचान के साथ उसने फिर से घर संभाल लिया, और एक बार फिर घर में वही आवाज़ें गूँजने लगीं, “रज्जो, मैं बाजार जा रही हूँ, संजा को चूल्हा जला लेना”, “रज्जो, मैं भजनों में जा रही हूँ, मुन्ना को संभाल लेना”, “रज्जो, रोटी ठंडी है, मंझले भैया आते होंगे, खाना गरम कर दे”। ससुराल से हमेशा के लिए वापस आने के बाद भी रज्जो कभी मोहल्ले के बच्चों साथ खेलने नहीं आई। मेरा मिलना-जुलना तो उससे पहले से ही बंद था। ससुराल से वापस आने के बाद और ज़्यादा पाबंदी लग गई। पर चाहे प्यार हो या दोस्ती, जितना रोको उतना बढ़ती है। मैं और रज्जो भी फिर से छुप-छुपकर मिलने लगे, कभी मंदिर में तो कभी बगिया में। कुछ ही महीने बीते थे उसे ससुराल से वापस आए, लेकिन उसके पिचके गाल और हड्डी से चिपकी हुई खाल के बीच जब माँस दिखने लगा तो उम्मीद जागी थी कि रज्जो की ज़िंदगी फिर से पहले जैसी न सही, पर ठीक तो हो जाएगी। लेकिन हमारे ज़माने में पति की छोड़ी हुई औरतों की दुर्दशा घर से ही शुरू होती है इसका एहसास मुझे उस दिन हुआ जब उसके छोटे भाई की शादी के एक दिन पहले मैं उसके घर गई। मेरा रज्जो से मिलना बंद था, लेकिन पड़ोसी होने के नाते वार-त्योहार पर एक-दूसरे के घर पारिवारिक आना-जाना था। शाम को उसके भाई की बरात दूसरे गाँव जानी थी, उसी के पहले घर में गीत थे, जिसमें मैं माँ के साथ गई थी और नज़र बचाकर रज्जो के कमरे में पहुँची तो वह किसी तैयारी में लगी थी। “हम्म, जे बाली साड़ी का ब्लाउज, इसका पेटीकोट और इसका… अरे जे तो भूल ही गई,” दिन भर सबके कामों को समिटवाती रज्जो को अपने लिए जब फ़ुर्सत मिली, तभी अपनी अटैची बाँधने गई। अपनी किसी साड़ी के छूटे पेटीकोट को अलमारी में से उठाती रज्जो का चेहरा ख़ुशी से खिला हुआ था। “क्या बात है एक दिन की बरात के लिए इतने कपड़े?” मैंने उसे छेड़ते हुए कहा तो वह बोली थी, “हाँ तो क्या… मेरे भाई की शादी है… और तुझे पता है गाँव से पहली बार बरात में औरतें भी जा रही हैं।” उस दिन कई सालों बाद मैंने रज्जो को इतना ख़ुश देखा था। जब बरात वाली बस के हॉर्न की आवाज़ सुनी, तो रज्जो दौड़कर बाहर भागी थी। बस पर ‘कमल संग छाया’ के पीले पर्चे देखकर वो उस बच्चे-सी चहक उठी थी, जो घर के छज्जे से पिता को हाथ में पसंदीदा खिलौना लाते हुए देखकर चहकता है। बस लगते ही घर के सारे मेहमान एक-एक करके बस में बैठते गए। रज्जो जब अपनी अटैची उठाए हुए बस के दरवाज़े पर पहुँची, मँझले भैया ने कहा, “तू रुक ज़रा, परे हो।” रज्जो भी ये सोचकर हट गई कि शायद भाभियाँ और वो किसी दूसरी जीप से जा रहे होंगे, क्योंकि अब तक भाभियाँ भी तो नहीं बैठी थीं। मगर थोड़ी देर बाद जब तीनों भाभियाँ भी बैठ गईं, तो रज्जो ने मँझले भैया से पूछ ही लिया, “और मैं… मैं नहीं जा रही हूँ क्या?” मँझले भैया ने नहीं में सिर हिलाया और जाने वालों की लिस्ट देखते हुए बस में चढ़ गए थे।



मैं उस दिन अपनी छत से रज्जो के टूटते अरमानों को बिखरता हुआ देखती रही थी। चाहती थी कि जाकर उसे गले लगा लूँ और कहूँ कि तू परेशान मत हो, एक दिन सब ठीक हो जाएगा, लेकिन मैं कर कुछ नहीं पाई, सिवाय दर्शक बनकर अपनी सहेली का तमाशा बनते देखने के। “कैसी बावली है, इसे भी ले जाएँगे, इसने सोच भी कैसे लिया!” बस चलने लगी तो किसी रिश्तेदारनी की आवाज़ खिड़की से आई थी। उस दिन घर के चबूतरे पर, लाल-हरे रंग की साड़ी में सजी-धजी, हाथ में अटैची लिए खड़ी रज्जो गली के मोड़ पर आँखें टिकाए तब तक खड़ी रही, जब तक उसका ये वहम टूट नहीं गया कि उसे सच में उसी के छोटे भाई की बरात में नहीं ले जाया गया था। रज्जो ने अटैची ज़ोर से चबूतरे पर फेंक दी थी और वहीं बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी थी। दो घंटे तक बेसुध-सी रोती रही थी वह और वहीं ज़मीन पर अटैची के टूटे कुंदे, बिखरी साड़ियों, टूटी चूड़ियों के साथ वह शाम रज्जो की उम्मीदों को साथ लेकर ढल गई। देर तक चाँद की मौजूदगी में उस रात सिर्फ़ मैं और रज्जो ही बचे थे। मैं अपनी छत से रज्जो की बेज़ार हुई ख़्वाहिशों को देख रही थी। और रज्जो, उसे तो आँसुओं की धुंध में शायद कुछ भी नहीं दिख रहा होगा, सिवाय रेत-सी बिखरी अपनी ज़िंदगी के, जिसे उस रात के अँधेरे में पिस्ता पंसारी के लड़के ने समंदर की लहर बनकर ख़ुद में समेट लिया था। उस रात मैंने उस लड़के को रज्जो का आँचल समेटते हुए घर में ले जाते और घर के दरवाज़े बंद करते देखा था। उसके बाद उस दरवाज़े के पीछे क्या हुआ कोई नहीं जानता। वो दरवाज़ा बाद में खुला ज़रूर, लेकिन रज्जो उसमें से फिर कभी नहीं निकली।

                                                                               By- अंकिता जैन

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